Wednesday, August 5, 2015

बारिश और प्रशासन

मुश्लाधार बारिश में भींगते हुए,
कविमन यूँ भंकृत हो गया !
हथेली पर टपकते बारिश की बूंदों की तरह,
शब्दों की माला बुनने को उद्वेलित हो गया !

घन्टे अनवरत बारिश को बरसते देखा,
आसमान में बिजली को कड़कते देखा !
बादलों की आगोश में छटपटाते सूरज को,
धरती पे झाकने को तराशते देखा !

भॅवर को कलियों पर मचलते देखा,
दीवानो को मयखानेमे देखा !
ज़िन्दगी की भागदौड़ में थके थे जो,
उनको भी रिमझिम फुहारों में देखा !

शिक्के की तरह इनके भी दूसरे पहलु को देखा ,
क्या छत वाले क्या बेघर सबको एक साथ सिहरते देखा !
खरे पानी से घिरे शहर को मीठे पानी  में डूबते देखा,
जो शहर न रुका है कभी, उनको भी आज ठहरते देखा !

चारो ओर है सिर्फ पानी पानी,
बाहर  क्या घर में भी है पानी !
पर जिम्मेदार है जो इसके,
उनकी आँखों में कहाँ है पानी !

जल ही जीवन है का नारा, दीवारों पे जो लिखा हुआ था !
जलमग्न हो कर वो भी आज, प्रशासनिक वयवस्था पे ऊँगली उठा रहा था !!